बैठा रहूँ अनिश्चिय की चौखट पर
मेरे मन कितने दिन और ?
विकलांग आस्थाएँ
लाँघ नहीं पातीं देहरी
और अधेड़ विश्वास हो गया है अंधा
बूढ़े सिद्धांत फिर भी देते हैं पहना
उन्हें दिखता नहीं कोई असंदिग्ध चेहरा
अब जंग लगी मान्यताओं के द्वार
देता रहूँ दस्ते मेरे मन कितने दिन और ?
झुंडों में घूमते हैं
दुराग्रह सड़कों पर
बसती हैं घरों में गर्भवती कुंठाएँ
पर्दे पड़ी खिड़कियों से विसंगतियाँ झाँकती हैं
विषमताएँ मानव के धीरज को आँकती हैं
इस दिशाहीन चौराहे पर खड़ा-खड़ा
सहता रहूँ यह दूर-स्थिति मेरे मन कितने दिन और ?
सर्पीली शंकाएँ
डसती हैं चुपके से
किंतु कोई बागी मंत्र नहीं पढ़ता
दूसरे की देह का भाता फूटना बिखरना
अपने कोढ़ी दोने से कोई नहीं डरता
दंशित है अनगिन और मैं हूँ अकेला
उतारता रहूँ सभी का जहर मेरे मन कितने दिन और ?